Sunday 31 March 2013

तेरी यादें...........

कई बार हम एक दूसरें से चाहते न चाहते हुए अलग तो  हो जाते हैं पर कुछ यादें हमेशा बाकी रह जाती है.
यही हमेशा हमारे साथ घुमा करती हैं.इन्हीं यादों के बीच घुमती हैं मेरी ये पंक्तियाँ.........
















हर दस्तक पर आहट तुम्हारी आज भी हैं,
बुझ चुके है कुछ साज एहसास उनमें आज भी हैं,
तेरी गली न छोड़ पाएंगें हम उस गली में जान हमारी आज भी हैं.

बरसात की कुछ रातें अब भी संभाली हैं,
बौछारों की आवाज़ उनमें आज भी हैं.
कुछ यादें तुम सिरांथे के पास भूल गयी हों,
उन यादों में गेसुओं की सुगंध तुम्हारे आज भी हैं.
कुछ यादों की बूंदें शाखों के पास पड़ी हैं,
उन शाखों को छुअन की आस तुम्हारे आज भी हैं.
थोड़ी यादें संभाले अश्क बैठे हैं,
तस्वीर इन यादों में तुम्हारी आज भी हैं.
इन काफिर यादों का सिलसिला ना थम सकेगा कभी,
कसक यादों में तुम्हे ना भूल पाने की आज भी हैं.

Saturday 30 March 2013

सपना नहीं हकीकत थी...

           
रेप एक भयावह हकीकत होती है किसी लड़की के  लिए
जिसे वो भूले न भूल सकती है.बस हर लम्हा वो घिनौनी याद उसे झंकझोरती रहती है .
आइये मैं आपको एक ऐसी लड़की की दास्तां से वाकिफ़ कराता हूँ जो दुष्कर्म जैसे घोर पाप कृत्य  का शिकार हुई ...


सपना नहीं हकीकत में वो बात थी,
सन्नाटे में गूंजती गिडगिडाती मेरी एक आवाज़ थी,
रहगुज़र इस सफ़र में घिनौने मंजर की बरसात थी,
कटी सी इस जिंदगी में न किसी आहट की अब आस थी,
सपना नहीं हकीकत में वो बात थी............

उस रात वो आँखें मदहोशी में डूबी थी,
 न जाने क्यों रुसवाई किस्मत की मुझ पर ही आकर टूटी थी,
अरमानों की खुली जमीन अब सिमटने लगी थी ,
तन्हाइयों से दोस्ती गहरी नज़र आती थी,
बिखरी न थी मैं अभी हिम्मत कुछ बाकी थी,
न्याय मिलेगा इस उम्मीद में कम्बख्त साँसें न जाती थी
पर आज वो भी खो गयी रोशनी की आस लिए अंधेर दरिया में अब सो गयी.

आखिर में यही कहूँगी सपना नहीं हकीकत में वो बात थी
सन्नाटे में गूंजती गिडगिडाती मेरी एक आवाज़ थी...........

Friday 29 March 2013

एड़ियों से भी खोया बचपन ........

                      
                        












                        
                            

                          कोमल एड़ियां थी हमारी वो खुरदरी हो गयी,  
                           देख उन्हें लगा जैसे आज  वो बड़ी हो गयी,
                           किनारे से की शुरुआत वो कहीं खो गयी,
                           चलाई कश्तियाँ जो पानी में कभी वो अब गुम हो गयी.
                           देख आसमान को लगा पहचान बादलों की सो गयी,
                           जगमगाते जो तारे थे चमक उनकी भी कम हो गयी.
                           देख़ एड़ियों को लगा अब वो भी बड़ी हो गयी.
.

                          अठखेलियाँ  बन  गई अब हमारी कहानी,
                          आज भी याद आता है बरसात का वो बरसता पानी,
                          अपने ही निशाँ नही मिलते गलियों में,
                          लगता हैं गुमशुदगी अब उनमें भी दर्ज हो गयी,
                         
                     एड़ियों को देख लगा जैसे आज वो भी बड़ी हो गयी........
                            
                                            
                     
                             
                 
                     

Friday 15 March 2013

बचपन की गलियाँ

                            

                                                           
बहुत सकडी थी वो सड़क, 
घर के गलयारे से वो दिखती थी, 
जाकर आगे चौराहे पर वो मुडती थी 
लेकिन थी बहुत सकडी वो सड़क. 

चहलकदमी खूब रहा करती थी उस पर 
रात को सन्नाटे में वो पसरती थी ,
चौकीदार के डंडे से भी पिटा करती थी,
लेकिन थी बहुत सकड़ी वो सड़क .

बरसातों में वो पानी का सहारा थी,
कागज़ की कश्तियों का हमारी एक छोटा सा किनारा थी ,
कभी बिजली की मार सहती तो कभी गड्डों में पसरा करती थी,
बदलते वक़्त का वो नज़ारा थी,
लेकिन थी बहुत सकड़ी  वो सड़क.

गुज़रे सालों बाद देख उस सड़क को लगा 
यादों की धुंध उस पर अब घूम रही थी,
सन्नाटे की परछाई भी धीरे से आगे  बढ  रही थी,
इतना कुछ बदल गया था समय हवा के झोंकों सा उड़ गया था,
पर एक चीज़ अब भी न बदली थी 
वही मेरी सकड़ी सी सड़क ....