Friday, 5 July 2013

एक रूप ऐसा भी ...

सपने में कुछ आँखें दिखाई दी,
आँखों में दर्द से लिपटी सिसकियाँ सुनाई दी,
गहराई में झाँका तो तबाही का एक मंजर था,
चारों ओंर  फैला दर्द का ही समंदर था,
सैलाब था हाहाकार थी,
हर ओर फैली चींख और पुकार थी.
अरमानो की टूटी डालियाँ बहती देखी,
पत्तों सी बिखरी रूहों में मदद की एक गुहार थी.
अब तक प्रकर्ति निहारी थी,आज उसमे एक हुंकार थी,
इंसानों को वो लील गयी,ऐसी थामे वो कटार थी.
आँख खुली सपना टूटा,पलकों पे नमी की बौछार थी,
टूट गयी साँसों की डोरी,गंगा में सिमटी अब तो रूह की मेरी आवाज थी...

Saturday, 15 June 2013

आज तलक...

आयना को चौराहे पर बच्चों की मदद करते देख तनय बड़ा हैरान था.वक़्त की दीवारों पर पड़े  सुराखों से यादें फिर झाँकने लगी.कुछ पलों बाद यादों की धुंध से बाहर निकलते ही उसने आयना को आवाज़ दी,पर आज भी वो समय की साजिश का शिकार हुआ और नम आँखें लिए फिर से आगे बढ गया.
                      
               धर्मविरुद्ध विवाह करने के कारण कुछ धर्मावलम्बियों की रंजिश का शिकार आयना को होना पड़ा था.विवाह के कुछ समय बाद ही उसके शरीर से सांसें छिन ली गयी.पर तनय आज भी  उस एक चेहरे को हर लम्हे में तलाशता फिरता है.शायद सब कुछ बिखर गया पर वो एक तस्वीर अब भी ख्यालों में कहीं सिमटी है. 
                          
            बस एक ही प्रश्न उसे आज तलक जिन्दा रखे है "क्यों प्यार धर्म का शिकार होता है?प्यार तो दो रूहों का मिलन है,फिर ये धर्म रूपी दीवार क्यों खड़ी हो जाती है?"    

Thursday, 6 June 2013

यादों का पेड़ ....

सड़क किनारे पीपल का एक पेड़, 
हर शाख में याद लिए हुए,
मेरी ही यादों से सींचा हुआ,
मेरी हर गुफ्तगु से रमा वो पेड़.
थोडा झुका सा,
शायद  यादों के बोझ से थक चुका था.
अल सुबह पत्तो की बूंदों  में,
बचपन की सी एक तस्वीर दिखाई देती.
हवा की सरसराहट में गूंजती कुछ 
आवाजें सुनाई देती. 
करवट लेते अरमानो का वो 
सहारा था.
बहुत कुछ बदला सा था,फिर भी था अपना वो पेड़.
कितने ही दशक उसने गर्व से काटे थे,
हर मौसम से लगता उसके गहरे नाते थे.
पर वक़्त की मार से आखिर न बच सका,
कुछ खुदगर्जों का शिकार हुआ वो पेड़.
अब बस एक खाली जगह दिखाई देती है,
परछाई उस पेड़ की मेरे मन में अंगडाई लेती है.
हर सू फैली खुशबू में एक उसकी खुशबू खोजता हूँ,
शायद अपनी यादों में अब,मेरी यादों का पेड़ सोचता हूँ.
 

Thursday, 30 May 2013

एक कहानी लिख



आज मेरी एक कहानी लिख
जिंदगी को शब्दों में लिखूं ,
ऐसी एक जिंदगानी लिख.
गुज़रते लम्हों को थाम लूँ हाथों से ,
लम्हों में ऐसी एक रवानी लिख .
कब तक अकेला फिरूं मैं राही,
न सब्र की इतनी जवानी लिख.
दर्द के टुकड़े बिखरे है यूँ ही,
दास्ताँ इनमे एक पुरानीं लिख.
कितने सावन सूखे बीते,
अब बूंद मेरी मस्तानी लिख.
इंतज़ार की घड़ियाँ सारी बीती,
आज रात मेरी सुहानी लिख,
लम्हों के इस दामन में तू
मेरी भी एक कहानी लिख.
  

Sunday, 5 May 2013

अधूरे शब्द...

आज एक अधूरा ख़त मिला
अधूरे शब्द  लिए हुए
अलमारी के कोने में पडा था.
जज्बात तो अब भी उसमे पूरे थे पर अधूरे शब्द
उन जज्बातों को बयाँ न कर पाए.
जिन शब्दों की माला से तुम्हे
हर सांस में महसूस किया,
न जाने क्यों वो शब्द ही अधूरे रह गए.
आज सोचा फिर से इन शब्दों को पूरा करूँ,
एक अधूरे ख़त की हल्की पड़ी स्याही में
गाड़ी स्याही के रंग कुछ और भरूं,
लेकिन न कर सका,
शायद ये शब्द भी तुम्हारे साथ कहीं गुम हो गये.
पर इन अधूरे शब्दों में
तुम अब भी कहीं बाकी हो,
एक एहसास बनकर.


और आज फिर से मेरा अधूरा ख़त
अधूरा ही रह गया.
अलमारी के कोने में जगह तलाशता,
शायद इस इंतज़ार में तुम कभी 
इस ख़त को पूरा करने आओगी.
  

Thursday, 25 April 2013

वक़्त की साजिश ....

वक़्त की साजिश है ये
नुमाइश में मैं खड़ा हूँ,
कोई नहीं अपना यहाँ पर 
ठोकर खाए पत्थर सा पड़ा हूँ.
मुझसे क्या पूछते हो कहानी इस सितम की 
जरा दुनिया के बाज़ार में सज कर तो देखो,
वक़्त के हाथों कितना जकड़ा मैं पड़ा हूँ.
गम-ए-तन्हाई का आलम इस कदर है छाया
हर मोड़ अब तो वीरां सफ़र है,
राही मैं सफर में रहबर की तलाश में खड़ा हूँ.

गुबार नहीं दर्द का इतना बड़ा के
दुनिया इसे देख पाए,
पग पग बंट रही ये धरती   
हिस्से की जमीन अपने बांटने मैं खड़ा हूँ.
वक़्त की साजिश है ये.........

Monday, 15 April 2013

गरीब की झोंपड़ी..

एक दर्द का टुकड़ा मेरे दिल से आज टकराया
जब मेरा मन उस झोपडी पर रह रह कर गया.
शहर के जगमगाहट के बीच गली के उस कोने की वो झोंपड़ी,
दिन के उजाले में आशाओं के अँधेरे की वो झोंपड़ी,
दबे सपनों की दास्ताँ बयां कर रही थी
शाम को जलते उस बल्ब की रोशनी.

थोडा मैं ठिठका देख उस झोंपड़ी को
फिर जाकर अन्दर किस्मत का एक अलग ही रंग मैं देख पाया.
हर दीवार वहां की एक दबी जुबान थी उस बेरुखी की
जो शायद आज तक कोई न समझ पाया.
हर लम्हा उनको लड़ते देखा कभी खुद से
तो कभी वक़्त की जंजीरों से,
दो वक़्त की रोटी तो एक सपना था,
बाकी बचे सपनो को उन्ही की ज़मीन पर बिखरते देखा.
उसी आँगन में एक बच्चा खेल रहा था,
उसकी आँखों में  ख्वाहिंशो का एक सूना झूला घूमता नज़र आया.
पर मैं कुछ न कर सका,इन सब में आसूं का एक कतरा मेरे पलकों पर छलक कर आया.
इतने रंगों में भी वो जिंदगी फीके रंगों से सजी थी,
ऐ मौला तेरी इस दुनिया में उनके लिए बस इतनी सी ज़मीन थी,
दरख्वास्त में भी खुदा से मैं बस इतना ही कह पाया..


जिंदगी बेहिसाब नहीं ......

                                                                                                                                                                           










जिंदगी बेहिसाब नहीं हर लम्हा हिसाब मांगती है,
आईने के सामने खड़ा हूँ तो आँखें जवाब मांगती है,
किस किस से दूर भागूँ मैं ये हवाएं शोर मचाती है,
यादों की भरी एक किताब हर कदम साथ भागती है.
मेरा अक्स भी नहीं खड़ा मेरे साथ  बेपरवाह मझे छोड़ गया,
भेदती है हर नज़र मुझे जब तीर प्रश्नों के वो दागती है.
रात के साये बालिश्तों से फैले है,
सवेरे को रोशनी का जरिया नज़र नहीं आता,
अब तो मेरी ज़मीन ही मुझसे घर का पता मेरे मांगती है.
रूह बंटी है यूँ हिस्सों में,खुदा का ये पैगाम है,
कभी मंजिल तो कभी दोज़ख की दुआ वो मांगती है.
जिंदगी बेहिसाब नहीं हर लम्हा......

Sunday, 31 March 2013

तेरी यादें...........

कई बार हम एक दूसरें से चाहते न चाहते हुए अलग तो  हो जाते हैं पर कुछ यादें हमेशा बाकी रह जाती है.
यही हमेशा हमारे साथ घुमा करती हैं.इन्हीं यादों के बीच घुमती हैं मेरी ये पंक्तियाँ.........
















हर दस्तक पर आहट तुम्हारी आज भी हैं,
बुझ चुके है कुछ साज एहसास उनमें आज भी हैं,
तेरी गली न छोड़ पाएंगें हम उस गली में जान हमारी आज भी हैं.

बरसात की कुछ रातें अब भी संभाली हैं,
बौछारों की आवाज़ उनमें आज भी हैं.
कुछ यादें तुम सिरांथे के पास भूल गयी हों,
उन यादों में गेसुओं की सुगंध तुम्हारे आज भी हैं.
कुछ यादों की बूंदें शाखों के पास पड़ी हैं,
उन शाखों को छुअन की आस तुम्हारे आज भी हैं.
थोड़ी यादें संभाले अश्क बैठे हैं,
तस्वीर इन यादों में तुम्हारी आज भी हैं.
इन काफिर यादों का सिलसिला ना थम सकेगा कभी,
कसक यादों में तुम्हे ना भूल पाने की आज भी हैं.

Saturday, 30 March 2013

सपना नहीं हकीकत थी...

           
रेप एक भयावह हकीकत होती है किसी लड़की के  लिए
जिसे वो भूले न भूल सकती है.बस हर लम्हा वो घिनौनी याद उसे झंकझोरती रहती है .
आइये मैं आपको एक ऐसी लड़की की दास्तां से वाकिफ़ कराता हूँ जो दुष्कर्म जैसे घोर पाप कृत्य  का शिकार हुई ...


सपना नहीं हकीकत में वो बात थी,
सन्नाटे में गूंजती गिडगिडाती मेरी एक आवाज़ थी,
रहगुज़र इस सफ़र में घिनौने मंजर की बरसात थी,
कटी सी इस जिंदगी में न किसी आहट की अब आस थी,
सपना नहीं हकीकत में वो बात थी............

उस रात वो आँखें मदहोशी में डूबी थी,
 न जाने क्यों रुसवाई किस्मत की मुझ पर ही आकर टूटी थी,
अरमानों की खुली जमीन अब सिमटने लगी थी ,
तन्हाइयों से दोस्ती गहरी नज़र आती थी,
बिखरी न थी मैं अभी हिम्मत कुछ बाकी थी,
न्याय मिलेगा इस उम्मीद में कम्बख्त साँसें न जाती थी
पर आज वो भी खो गयी रोशनी की आस लिए अंधेर दरिया में अब सो गयी.

आखिर में यही कहूँगी सपना नहीं हकीकत में वो बात थी
सन्नाटे में गूंजती गिडगिडाती मेरी एक आवाज़ थी...........

Friday, 29 March 2013

एड़ियों से भी खोया बचपन ........

                      
                        












                        
                            

                          कोमल एड़ियां थी हमारी वो खुरदरी हो गयी,  
                           देख उन्हें लगा जैसे आज  वो बड़ी हो गयी,
                           किनारे से की शुरुआत वो कहीं खो गयी,
                           चलाई कश्तियाँ जो पानी में कभी वो अब गुम हो गयी.
                           देख आसमान को लगा पहचान बादलों की सो गयी,
                           जगमगाते जो तारे थे चमक उनकी भी कम हो गयी.
                           देख़ एड़ियों को लगा अब वो भी बड़ी हो गयी.
.

                          अठखेलियाँ  बन  गई अब हमारी कहानी,
                          आज भी याद आता है बरसात का वो बरसता पानी,
                          अपने ही निशाँ नही मिलते गलियों में,
                          लगता हैं गुमशुदगी अब उनमें भी दर्ज हो गयी,
                         
                     एड़ियों को देख लगा जैसे आज वो भी बड़ी हो गयी........
                            
                                            
                     
                             
                 
                     

Friday, 15 March 2013

बचपन की गलियाँ

                            

                                                           
बहुत सकडी थी वो सड़क, 
घर के गलयारे से वो दिखती थी, 
जाकर आगे चौराहे पर वो मुडती थी 
लेकिन थी बहुत सकडी वो सड़क. 

चहलकदमी खूब रहा करती थी उस पर 
रात को सन्नाटे में वो पसरती थी ,
चौकीदार के डंडे से भी पिटा करती थी,
लेकिन थी बहुत सकड़ी वो सड़क .

बरसातों में वो पानी का सहारा थी,
कागज़ की कश्तियों का हमारी एक छोटा सा किनारा थी ,
कभी बिजली की मार सहती तो कभी गड्डों में पसरा करती थी,
बदलते वक़्त का वो नज़ारा थी,
लेकिन थी बहुत सकड़ी  वो सड़क.

गुज़रे सालों बाद देख उस सड़क को लगा 
यादों की धुंध उस पर अब घूम रही थी,
सन्नाटे की परछाई भी धीरे से आगे  बढ  रही थी,
इतना कुछ बदल गया था समय हवा के झोंकों सा उड़ गया था,
पर एक चीज़ अब भी न बदली थी 
वही मेरी सकड़ी सी सड़क ....