एक दर्द का टुकड़ा मेरे दिल से आज टकराया
जब मेरा मन उस झोपडी पर रह रह कर गया.
शहर के जगमगाहट के बीच गली के उस कोने की वो झोंपड़ी,
दिन के उजाले में आशाओं के अँधेरे की वो झोंपड़ी,
दबे सपनों की दास्ताँ बयां कर रही थी
शाम को जलते उस बल्ब की रोशनी.
थोडा मैं ठिठका देख उस झोंपड़ी को
फिर जाकर अन्दर किस्मत का एक अलग ही रंग मैं देख पाया.
हर दीवार वहां की एक दबी जुबान थी उस बेरुखी की
जो शायद आज तक कोई न समझ पाया.
हर लम्हा उनको लड़ते देखा कभी खुद से
तो कभी वक़्त की जंजीरों से,
दो वक़्त की रोटी तो एक सपना था,
बाकी बचे सपनो को उन्ही की ज़मीन पर बिखरते देखा.
उसी आँगन में एक बच्चा खेल रहा था,
उसकी आँखों में ख्वाहिंशो का एक सूना झूला घूमता नज़र आया.
पर मैं कुछ न कर सका,इन सब में आसूं का एक कतरा मेरे पलकों पर छलक कर आया.
इतने रंगों में भी वो जिंदगी फीके रंगों से सजी थी,
ऐ मौला तेरी इस दुनिया में उनके लिए बस इतनी सी ज़मीन थी,
दरख्वास्त में भी खुदा से मैं बस इतना ही कह पाया..
जब मेरा मन उस झोपडी पर रह रह कर गया.
शहर के जगमगाहट के बीच गली के उस कोने की वो झोंपड़ी,
दिन के उजाले में आशाओं के अँधेरे की वो झोंपड़ी,
दबे सपनों की दास्ताँ बयां कर रही थी
शाम को जलते उस बल्ब की रोशनी.
थोडा मैं ठिठका देख उस झोंपड़ी को
फिर जाकर अन्दर किस्मत का एक अलग ही रंग मैं देख पाया.
हर दीवार वहां की एक दबी जुबान थी उस बेरुखी की
जो शायद आज तक कोई न समझ पाया.
हर लम्हा उनको लड़ते देखा कभी खुद से
तो कभी वक़्त की जंजीरों से,
दो वक़्त की रोटी तो एक सपना था,
बाकी बचे सपनो को उन्ही की ज़मीन पर बिखरते देखा.
उसी आँगन में एक बच्चा खेल रहा था,
उसकी आँखों में ख्वाहिंशो का एक सूना झूला घूमता नज़र आया.
पर मैं कुछ न कर सका,इन सब में आसूं का एक कतरा मेरे पलकों पर छलक कर आया.
इतने रंगों में भी वो जिंदगी फीके रंगों से सजी थी,
ऐ मौला तेरी इस दुनिया में उनके लिए बस इतनी सी ज़मीन थी,
दरख्वास्त में भी खुदा से मैं बस इतना ही कह पाया..
सबका अपना अपना नसीब है ...
ReplyDeleteगरीबी से बढ़कर कोई बड़ा अभिशाप नहीं...
मार्मिक अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteNishabd karti hui rachna...
ReplyDeleteजीवन के सुख दुःख को व्यक्त करती
ReplyDeleteयथार्थ की जमीन से जुडी
सार्थक रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति
शुभकामनायें
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
सकारात्मक कविता......उत्कृष्ट प्रस्तुति
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