Friday 5 July 2013

एक रूप ऐसा भी ...

सपने में कुछ आँखें दिखाई दी,
आँखों में दर्द से लिपटी सिसकियाँ सुनाई दी,
गहराई में झाँका तो तबाही का एक मंजर था,
चारों ओंर  फैला दर्द का ही समंदर था,
सैलाब था हाहाकार थी,
हर ओर फैली चींख और पुकार थी.
अरमानो की टूटी डालियाँ बहती देखी,
पत्तों सी बिखरी रूहों में मदद की एक गुहार थी.
अब तक प्रकर्ति निहारी थी,आज उसमे एक हुंकार थी,
इंसानों को वो लील गयी,ऐसी थामे वो कटार थी.
आँख खुली सपना टूटा,पलकों पे नमी की बौछार थी,
टूट गयी साँसों की डोरी,गंगा में सिमटी अब तो रूह की मेरी आवाज थी...

5 comments:

  1. टूट गयी साँसों की डोरी,गंगा में सिमटी अब तो रूह की मेरी आवाज थी...
    इस क्यों का उत्तर कोई नहीं जानता...मार्मिक अभिव्यक्ति

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  2. दर्द मुखरित हुई..

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  3. तबाही का ये मंज़र सपने की तरह ही आया और ले उड़ा सब कुछ ...

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  4. लगता भूलों में ही यह, उम्र गुज़र जायेगी !
    हिमालय को समझते, उम्र गुज़र जायेगी !

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